उ.प्र. चुनावों में कांग्रेस की कमान संभाल सकती हैं प्रियंका
उत्तर प्रदेश में संगम के किनारे बसे इलाहाबाद की जितनी धार्मिक मान्यता है। उतनी ही इसकी अपनी सियासी पहचान है। बात चाहें देश की आजादी की हो या फिर सियासत की, दोनों ही जगह इलाहाबाद के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इलाहाबाद ने कई क्रांतिकारियों और राजनेताओं को जन्म दिया है। कांग्रेस के इलाहाबाद से रिश्ते काफी पुराने हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहचान भले ही कश्मीरी पंडित की थी, लेकिन उनकी कर्मभूमि इलाहाबाद ही रही। नेहरू ने यहां से सियासत शुरू की तो उनकी इकलौती बेटी इंदिरा गाँधी को भी इलाहाबाद खूब रास आया। इलाहाबाद आज भी सियासी कारणों से पूरे देश में सुर्खियां बटोर रहा है। जब भी लोकसभा/विधानसभा का चुनाव आता है, यहां राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो जाती हैं। तेजी का यह दौर राहुल गाँधी की विफलता के बाद कुछ ज्यादा ही मुखर होकर सामने आ रहा है। यहाँ से प्रियंका गाँधी के समर्थन में आवाजें उठती हैं तो, दबी जुबान से यहाँ के काँग्रेसी आलाकमान को यह अहसास कराने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं कि, राहुल गाँधी यूपी की सियासत में वह मुकाम हासिल नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी काँग्रेस को दरकार है। यहां के काँग्रेसी प्रियंका गाँधी में उनकी तेजतर्रार दादी इंदिरा गाँधी की झलक देखते हैं। ‘प्रियंका नहीं आँधी है, दूसरी इंदिरा गाँधी है।’ के नारे लगाये जाते हैं।
अदने से अदना और बड़े से बड़ा काँग्रेसी भी जानता है कि, इलाहाबाद ऐसा शहर है, जिससे गाँधी परिवार कभी दूरी नहीं बना सका। भले ही इलाहाबाद की दोनों संसदीय सीटों (इलाहाबाद−फूलपुर) पर 1984 के बाद से काँग्रेस का खाता नहीं खुला हो, लेकिन यहाँ नेहरू−इंदिरा को चाहने वालों की कमी नहीं है। इसमें काँग्रेसी भी हैं, और आमजन भी। यह लोग लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि किसी तरह से प्रियंका गाँधी को यहाँ से चुनाव लड़ा दिया जाये। कोशिशें हर बार हुईं, लेकिन लगता है इस बार यह कोशिश परवान चढ़ सकती है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व यदि 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी इलाहाबाद की किसी विधानसभा सीट से किस्मत आजमाते हुए नजर आयें तो, किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। प्रियंका को मैदान में उतारने की योजना राहुल के रणनीतिकार बना रहे हैं।
कांग्रेसी गलियारों में चर्चा तो यह भी है कि, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी यूपी की सियासत में अहम किरदार निभाने को कहा जा सकता है। वह यूपी चुनाव में कांग्रेस की प्रभारी बन सकती हैं। प्रियंका गाँधी, शीला दीक्षित और डॉ. रीता बहुगुणा जोशी की तिकड़ी के सहारे कांग्रेस आलाकमान भाजपा को महिलाओं के मुद्दे पर बैकफुट पर धकेलना चाहती है। पीएम मोदी जिस तरह से महिलाओं के हितों के लिये काम कर रहे हैं, उससे कांग्रेस ही नहीं बसपा और समाजवादी नेतृत्व भी परेशान है। सपा के पास महिला नेतृत्व का अभाव है। इसलिये वह ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं दिखता है, लेकिन बसपा और कांग्रेस लगातार भाजपा की हवा निकलाने की कोशिश कर रही हैं।
यूपी की राजनीति में प्रियंका गाँधी का आगमन हो रहा है, यह बात इसलिये और भी दावे के साथ कही जा सकती है क्योंकि, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी अचानक इलाहाबाद को लेकर काफी गंभीर हो गई हैं। सोनिया गाँधी एक महीने के अंदर इलाहाबाद के दो बार चक्कर लगा चुकी हैं। सोनिया की दोनों ही यात्राएं गोपनीय रखने की कोशिश की गई थी। पहली यात्रा के दौरान तो उनकी कुछ कांग्रेसी नेताओं से मुलाकात हो भी गई दूसरी यात्रा के दौरान वह किसी से नहीं मिलीं। सोनिया के इलाहाबाद दौरे को राजनीतिक पंडित प्रियंका से जोड़ कर देख रहे हैं। आने वाले समय में भी सोनिया की कई यात्राओं की बात कही जा रही है।
वैसे, यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि बुरे समय में इलाहाबाद से कई बार कांग्रेस ने खोई हुई ताकत हासिल की है। अतीत पर नजर दौड़ाई जाये तो, इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से अलग होने के पश्चात जब फूलपुर को संसदीय क्षेत्र का दर्जा हासिल हुआ तो 1957 में यहां से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चुनाव लड़ा था। 1962 में भी नेहरू यहाँ से चुनाव जीते। नेहरू के बाद उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित और वीपी सिंह ने भी यहां से चुनावों में जीत हासिल करके कांग्रेस का मान बढ़ाया था। 1984 के बाद से कांग्रेस को यहां से जीत हासिल नहीं हो पाई। नेहरू ने जब इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ा तो उन्हीं वर्षों (1957−1962) में इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से नेहरू के सबसे करीबी लाल बहादुर शास्त्री चुनाव जीतते रहे। इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, दिग्गज कांग्रेस नेता हेमवती नंदन बहुगुणा और 1984 में अभिनेता से नेता बने अमिताभ बच्चन भी चुनाव जीत कर शोहरत हासिल कर चुके हैं। बाद में समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह और भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी को भी यहां से जीत हासिल करने का सौभाग्य हासिल हुआ। कांग्रेस से अलग होने के पश्चात 1988 में वीपी सिंह यहां हुए उप−चुनाव में उतरे और निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल की।
इलाहाबाद से इंदिरा गाँधी चुनाव भले ही नहीं लड़ी थीं, लेकिन उनका लगाव हमेशा ही इस जिले से बना रहा। यही बात राजीव गाँधी के साथ भी जुड़ी थी। हालांकि पिछले तीन दशकों से कांग्रेस के परिवार या उसका वफादार उम्मीदवार नहीं मिलने के कारण यहां से कांग्रेस का प्रभाव काफी कम हो गया है। हाल ही में इलाहाबाद पहुंचीं सोनिया गाँधी से स्थानीय कार्यकर्ताओं ने प्रियंका को यहां से चुनाव लड़ाने की मांग की थी। तब सोनिया गाँधी ने इस पर विचार करने का आश्वासन भी दिया था। यह माना जा रहा है कि नवंबर के मध्य तक इस बात की औपचारिक घोषणा कर दी जायेगी। नवंबर इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी माह 14 नवंबर को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का और 19 नवंबर को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का जन्मदिन होता है। नेहरू−इंदिरा गांधी के जन्मदिन समारोह के दौरान प्रियंका के नाम पर मुहर लग सकती है। प्रियंका के नाम की घोषणा नवंबर में एक और वजह यह है कि कांग्रेस चाहती है कि, प्रियंका के नाम की घोषणा जितनी देरी से होगी, उतना उनके नाम का क्रेज बना रहेगा।
प्रियंका को यूपी की सियासत में उतारने और उन्हें इलाहाबाद से चुनाव लड़ाने के पीछे प्रशांत किशोर बताये जाते हैं। इस क्षेत्र में कांग्रेस की संभावनाएं प्रबल हैं। यहां की जनता का आज भी नेहरू परिवार से भावनात्मक लगाव है। 2012 के विधानसभा चुनाव के समय भी कांग्रेस इलाहाबाद से एक सीट निकालने में सफल रही थी। बात आगे बढ़ाई जाये तो यह अहसास सबको है कि उत्तर प्रदेश और नेहरू गांधी परिवार का रिश्ता पुराना है। इस परिवार को यूपी से जितना मिला, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अगर देश की सियासत में इस परिवार का चार पीढ़ियों से सिक्का चला तो यूपी और उसमें भी खासकर इलाहाबाद, रायबरेली, अमेठी, सुल्तानपुर के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यूपी में इस परिवार की सियासत का परचम फहरा तो पूरे देश में इसका प्रभाव देखने को मिला। दिल्ली की सत्ता यूपी के रास्ते से होकर गुजरती है। यह बात नेहरू−गाँधी परिवार से बेहतर कौन जान सकता है। यूपी में कांग्रेस कमजोर हुई तो दिल्ली से भी उखड़ गई। कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में ऐसी दुर्दशा बस एक बार इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में देखने को मिली थी। तब और कारण थे, लेकिन आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कमजोर है तो उसकी वजह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का कमजोर पड़ना है।