स्वार्थ; रिश्तों की नई परिभाषा
इंसान को समाज में सम्मान पूर्वक जीवन बिताने के लिए रिश्तों के साथ जुड़ा रहना बहुत जरुरी होता है. भारतीय परिवेश में तो वैसे भी रिश्तों को बहुत ज्यादा मान दिया जाता है, पर आज-कल अक्सर देखने में आता है कि भारतीय समाज में भी रिश्ते बहुत तेजी से अपना अस्तित्व खोते जा रहें हैं.
हो सकता है कि तेजी से भागते समय मे रिश्तों को सम्हालने और सहेजने के लिए लोगों के पास समय न हो . पर सिर्फ समय का ही दोष नही है रिश्तें स्वयं भी अपना मूल्य खोते जा रहें हैं ,पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव युवा पीढ़ी पर साफ़ दिखाई दे रहा है .हर कोई सिर्फ अपने तक ही सीमित हो गया है .सबके सोचने के तरीके बदल गए हैं , मापदंड बदल गए हैं , बढ़ती जिम्मेदारी के बोझ ने माँ बाप को तो दरकिनार ही कर दिया ,माँ बाप बहुत उम्मीद से बच्चों को पालते हैं की ये हमारे बुढ़ापे में सहारा बनेंगें लेकिन बच्चें उनकी सोच से परे अपनी ही दुनिया में व्यस्त हो गए है ,
भारतवर्ष में बढ़ते ओल्डएज होम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है . पहले विदेशों में ही ओल्डएज होम का प्रचलन था किन्तु अब भारत में बढ़ती ओल्डएज होम की संख्या ने टूटते रिश्तों की सच्चाई पर मोहर लगा दी है . अपने बच्चों से दूर रहने वाले माँ बाप बच्चों के खिलाफ नही जा पाते , सरकार ने ऐसे बहुत से क़ानून बनाए हैं जिससे बूढ़े माँ बाप के हितों की रक्षा हो सके लेकिन बच्चों से निस्वार्थ प्यार करने माँ बाप कभी शिकायत नही करते . कुछ परिस्थितियों में यदि माता या पिता ने कोई शिकायत की है तो प्रशासन व पुलिस ने उनकी तुरंत सहायता भी की है . रिश्तों के टूटने का एक कारण पीढ़ी दर पीढ़ी की सोच भी है कई बार बच्चें चाहते हुए भी माँ बाप को अपने साथ नही रख पाते . ऐसे में सारा कसूर उनका भी नही होता , आज के समय में आमदनी कम और खर्च ज्यादा होने के कारण ,छोटे घर होने के कारण , विचार भिन्नता के कारण भी उनसे अलग रहना पड़ता है .
गाँव में अभी भी संयुक्त परिवार का रिवाज है लेकिन शहरों में तेजी से फैलती पाश्चत्य संस्कृति ने स्वछंदता की चाह हर व्यक्ति में पैदा कर दी है इसके कारण एकल परिवार दिखाई देते हैं .
इन परिस्थितियों और माहौल में भारतीय समाज की सबसे बड़ी बिडम्बना अभी भी ये है कि, आज के आधुनिक परिवेश में बेटे की चाह अभी भी जिन्दा हैं , लड़के के होने पर जिस तरह ख़ुशी मनाई जाती है और बधाइयों का सिलसिला चलता है , वहीँ बेटी के पैदा होते ही सबके चेहरे पर मायूसी छा जाती है खुद बेटी को जन्म देने वाली माँ भी खुद को कसूरवार समझने लगती है जैसे बेटी को जन्म देकर कोई गुनाह कर दिया हो .
जहाँ ऐसी सोच रखी जाती हो वहां कैसे तरक्की की बात सोच सकतें हैं . रिश्तों की अहमियत ही रिश्तों को ख़ुशी और इज्ज़त देती है ……