भारत में मात्र 27 फीसदी कामकाजी महिलाएं
विश्व बैंक की हाल ही मे जारी एक रिपार्ट में सामने आया है कि, अन्य एशियाई देशों की तुलना में हमारे देश में कामकाजी महिलाएं कम हैं। पिछले वर्षों में समग्र प्रयासों से महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ी है। महिलाओं ने रोजगार के लिए जोखिम वाले क्षेत्रों में भी प्रवेश किया है। आज जोखिम वाले काम भी महिलाएं बड़ी सहजता और सफलता से करने लगी हैं। एक समय था जब नौकरीपेशा महिला का मतलब अध्यापिका या नर्स की नौकरी से लगाया जाता था। किसी महिला के नौकरीपेशा होने का सहज अंदाज यही लगाया जाता था कि वह या तो किसी स्कूल में शिक्षिका होगी या फिर किसी चिकित्सालय में नर्स, पर आज स्थिति में तेजी से बदलाव आया है और अब तो सेना के विमान उड़ाने तक की महिलाओं का अनुमति दी जा रही है। सेना के तीनों अंगों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी तय की जा रही है। बैंकिंग क्षेत्र में तो आज महिलाओं का दबदबा है ही. कारोबारी क्षेत्र में भी महिला उद्यमियों ने अपनी पहचान बनाई है। ऐसे में अन्य देशों की तुलना में देश में कामकाजी महिलाओं के कम होने का सीधा सीधा अर्थ महिला शक्ति का आर्थिक विकास में भागीदारी प्रभावित होना है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 27 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी हैं। इसमें भी जो आश्चर्यजनक पहलू सामने आया है, वह यह कि शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं अधिक कामकाजी हैं। उत्तरपूर्वी राज्यों से अधिक महिलाएं नौकरीपेशा हैं। इससे विसंगति तो साफ उभर कर आ ही रही है, इसके साथ ही यह भी साफ हो रहा है कि,आर्थिक विकास में महिलाओं की पूरी भागीदारी भी तय नहीं हो पा रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में महिला साक्षरता की दर 65 फीसदी है। यदि हम नौकरी पेशा महिलाओं को शतप्रतिशत साक्षरता की श्रेणी में ही मानें तो भी तकरीबन 39 फीसदी पढ़ी−लिखी महिलाएं कामकाजी नहीं हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि देश में साक्षर महिलाओं में से आधी महिलाएं देश की जीडीपी में अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रही हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि भारत की कामकाजी आबादी में महिलाओं की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। ग्रामीण भारत में 11 साल के दौरान कामकाजी आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी 35 से गिरकर 30 फीसदी रह गई। लेकिन सच्चाई यह नहीं है। दरअसल भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां नौकरीपेशा महिलाओं के लिए काम करने की स्थितियां बेहद खराब हैं। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि,महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक माने जाने वाले देशों में सबसे ऊपर बताया जाने वाला सोमालिया तक इस मामले में बेहतर स्थिति में है। वहां कुल कामकाजी आबादी में महिलाओं की संख्या 37 फीसदी है, जबकि भारत के लिए यह आंकड़ा 25.5 फीसदी है। दुनिया में एक नई तरह की ताकत के रूप में सामने आने वाले ब्रिक्स देशों में भी इस लिहाज से भारत सबसे निचले पायदान पर है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विनोज इब्राहिम ने एक शोध के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। वर्ष 2011 तक के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद उन्होंने जितना कुछ भी इस शोध के जरिए जुटाया है वह कहीं से भी नौकरीपेशा महिलाओं के संदर्भ में भारत की स्थिति को संतोषजनक नहीं दिखाता। शोध के मुताबिक सबसे चिंता की बात यह है कि भारत की कामकाजी आबादी में महिलाओं की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है।
इस शोध के मुताबिक भारत में अलग−अलग क्षेत्रों में काम करने वालों की कुल संख्या का अध्ययन करने पर पता चलता है कि, इन क्षेत्रों में साल 2011 में महिलाओं की भागीदारी मात्र 25.5 प्रतिशत थी। सिर्फ ग्रामीण भारत की ही बात करें तो 1999−2000 से लेकर 2011−12 तक की अवधि के दौरान कामकाजी आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी 35 से गिरकर 30 फीसदी रह गई। इस दौरान शहरी भारत की बात करें तो यह आंकड़ा लगभग एक समान (20 प्रतिशत) ही रहा है। हालांकि उनकी संख्या एक करोड़ 90 लाख से बढ़कर दो करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में उनका 80 फीसदी हिस्सा खेती में लगा है,जबकि शहरों में कामकाजी महिलाओं की सबसे बड़ी भागीदारी अदर सर्विसेज जैसे क्षेत्रों में है, जिनमें घरों में झाड़ू−पोछा और खाना बनाने जैसे काम शामिल हैं। इंजीनियरिंग और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में उनकी हिस्सेदारी 16 और 18 फीसदी है। इसका एक मतलब यह है कि अच्छी शिक्षा और रोजगारपरक प्रशिक्षण के मामले में आधी आबादी अब भी काफी पीछे है।
देश में साक्षरता के स्तर में निरंतर सुधार और महिलाओं का पढ़ने−लिखने के प्रति रुझान बढ़ने बाद भी महिलाओं का घर की चार दीवारी तक ही सीमित रहना बेहद चिंतनीय है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में पढ़ी−लिखी महिलाओं में से चार दीवारी से बाहर निकल कर रोजगार से जुड़ने वाली महिलाओं का आंकड़ा 27 फीसदी ही है। यह भी आश्चर्यजनक सत्य सामने आया है कि,शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाओं का रोजगार के प्रति अधिक रुझान है। रोजगार से नहीं जुड़ने के कारण महिलाओं का जीडीपी में योगदान कम है। पुरुषों के बराबर नौकरीपेशा महिलाएं हो जाएं तो जीडीपी में सीधे सीधे 27 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाए।
पड़ोसी देश नेपाल में 80 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं। चीन, श्रीलंका, रूस, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, इंडोनेशिया, केन्या, ब्राजिल जैसे अन्य देशों में हमारे देश की तुलना में अधिक महिलाएं कामकाजी हैं।अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रमुख क्रेस्टिन का मानना है कि भारत में पुरुषों के बराबर महिला कर्मचारी हो जाएं तो जीडीपी के स्तर में 27 फीसदी बढ़ोतरी हो जाए। यह सब स्थिति तब है जब लड़कों की तुलना में लड़कियां पढ़ाई में लगातार बाजी मार रही हैं। परीक्षा परिणामों में लड़कियां मेरिट में अधिक जगह बना रही हैं। दरअसल हमारी सामाजिक आर्थिक सोच भी इसका एक प्रमुख कारण है।
भारत में नौकरी पेशा महिलाओं के लिए परिस्थितियों के इस कदर चिंताजनक होने के पीछे जानकारों को कई सारी वजहें दिखती हैं। जानकारों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि कार्य क्षेत्रों से महिलाओं की इस गिरती दर के लिए उनकी पारिवारिक परिस्थितियां सबसे ज्यादा जिम्मेदार मानी जा सकती हैं, क्योंकि अक्सर यह देखा जाता है कि बच्चों की परवरिश, पारिवारिक दबाव और सामाजिक नियम कायदों की मजबूरी के चलते महिलाएं अच्छे खासे पदों पर रहने के बावजूद नौकरी छोड़ देती हैं। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्ता परक शिक्षा की कमी के चलते भी कई महिलाएं सीमित दायरे वाली नौकरियां ही कर पाती हैं, जिनमें तरक्की के बहुत कम मौके होते हैं और उनके पद भी स्थायी नहीं होते। इस वजह से कई महिलाएं कुछ साल ही ठीक से नौकरी कर पाती हैं और फिर उन्हें घर बैठ जाना पड़ता है।
आज भी पढ़ाई−लिखाई के दौरान ही अच्छा कमाता खाता लड़का मिल जाए और उससे शादी कर देना ही परिजन अपने दायित्व का सही निवर्हन मानते आ रहे हैं। अभी तक यह सोच नहीं विकसित हो रही कि पहले लड़की को भी रोजगार दिलाकर उसे आत्म निर्भर बनाए और फिर उसी के आधार पर लड़का देख कर शादी करें। दरअसल शादी नहीं होने तक बोझ समझने की सोच का ही परिणाम है कि पढ़ी लिखी लड़कियां भी शादी के बाद घर गृहस्थी तक सिमटी रह जाती हैं। हालांकि अब स्थितियों में बदलाव आने लगा है पर इसे अभी शुरुआत ही समझना अधिक सही होगा क्योंकि, पढ़ी लिखी महिलाओं में से 50 फीसदी महिलाएं आज भी रसोई−चौके तक ही सीमित हैं।
महिलाओं के सशक्तीकरण की चाहें कितनी ही बातें की जाएं लेकिन हकीकत यह है कि उनके साथ दोयम दर्जे का बर्ताव बदस्तूर बरकरार है। महिलाएं न सिर्फ पुरुषों के मुकाबले रोजगार के मामले में पीछे हैं, बल्कि वेतनमान में भी भेदभाव की शिकार हैं। श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए भारत में अनुकूल परिस्थितियां एक अपरिहार्य जरूरत है। लेकिन भारत में जिस तरह से कई दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं, उसे देखते हुए यह जल्द होना संभव नहीं लगता। जेनेवा स्थित वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम के सालाना जेंडर गैप इंडेक्स के पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि भारत की महिलाएं स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में बहुत ज्यादा विषमता की शिकार हैं। दुनिया के 140 से अधिक देशों से जुटाए गए ये आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के मामले में भारत इन देशों में 114 वें स्थान पर है। यानी भारत उन सबसे निचले तीस देशों में शामिल है जो महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा भेदभाव करते हैं।