भाईचारे में अभिव्यक्ति की आज़ादी का दंगल
जब देश का संविधान लिखा गया तब मीडिया को कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बाद मीडिया को गणतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया, जिसका काम है निष्पक्ष रहने और निष्पक्ष रहते हुए लोगों से जुड़े हुए गहन मुद्दे की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करना, समाज में पल रही नफरत और कुप्रथाओं के खिलाफ जागरूकता फैलाना, लोगों तक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे आदि को उठाना, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या सच में ऐसा आज के समय में हो रहा है ? इसका कारण है मीडिया का निजीकरण या आसान शब्दों में समझने की कोशिश करें तो एक बिज़नेस होना. जहां सारी जुगत पैसा छापने और अपनी धाक बनाने की है. पर यह कितना सही है ?
अगर सिक्के के दोनों पहलूओं की तरह सोचना शुरू करें तो पेट पालने के लिए तो हाँ यह जरूरी है और दूसरा पहलू सोचे तो क्या मीडिया का समाज के प्रति कोई दायित्व नही है ? बहुत से लोग सोचेंगे कि भला ऐसा क्या हो गया जो एक संस्थान से जुड़े लोग ऐसी बातें लिख रहे है. तो आपको बता दें कि आजकल जिस तरह से पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा है. उसके देखते हुए तो ऐसी आवाज़ उठाना बनता ही है. आजकल इलैक्ट्रोनिक मीडिया के ज्यादा चलन में आने के कारण ऐसा हो रहा है. इसका एक कारण यह भी है कि टीवी मीडिया पर टीआरपी लाने की चुनौती होती है, जिससे उनकी कमाई होती है. पर इसका मतलब तो यह नही ना कि चैनल वाले कुछ भी दिखा दें. चिंतन का विषय यह है कि इसका हमारे समाज पर क्या असर पड़ रहा है ? अगर आप किसी मीडियाकर्मी से यह सवाल करेंगे तो उसका जवाब होगा कि लोगों को यह सब चिक-चिक और बेतुक के मद्दों की बहस लोगों को पसंद आती है.
परंतु परेशानियाँ बहसों में नही है, दिक्कत तब होती है जब एंकर मॉडरेटर कम और पार्टी का प्रवक्ता बनकर बहसों के बीच अपने मत रखने शुरू कर देते है. इससे लोगों को नई दिशा कम मिलती है, बल्कि उनके दिमाग से ज्यादा खेला जाता है. एक बात को बार-बार बोलकर लोगों को रटाना, जिसे एडवरटाइजिंग में बुलेट थ्योरी कहते है. लोगों के नजरिए को बदलने की कोशिश होती है या यूँ कहें कि पार्टीयों का प्रचार किया जाता है. एंकर पार्टी के प्रवक्ता को कम, खुद पार्टी का प्रतिनिधित्व करके सवाल करने लगते है. जिसके चलते आजकल मीडिया जगत के कुछ लोग तो खुलकर स्वीकार करने लगे है कि हर व्यक्ति की अपनी भावनाएं और नजरिया कहीं न कहीं आगे आ ही जाता हैं, हर कोई इंसान ही होता है आदि-आदि. ऐसी कुछ बातें बोलकर टाल दिया जाता है.
अब आते है मुद्दे की गंभीरता पर, कि लोगों पर इसका क्या असर होता है ? ऐसे पहले कई शोध हुए है जो कहते है कि इंसान को रात के समय सोने से पहले के दो घंटे की बाते कहीं न कहीं रात के समय दिमाग में चलती रहती है. जिसका असर लोगों में बढ़ता आक्रोष, गुस्सा, चीड़चीड़पन आदि देखने को मिलता है, पर मीडिया को यह सब बोलने पर जवाब मिलता है कि लोग चैनल बदल सकते है. हम तो यही दिखाएंगे, जिसको देखना है वह देखे, नही देखना वे न देखे आदि. ऐसे ही कुछ जवाब प्रतिष्ठित एंकरों के द्वारा कैमरे के बाहर की दुनिया में मिलते है.
आज के परिपेक्ष को देखें तो सिर्फ इतना ही नही देश के लगभग हर बड़े और प्रख्यात पत्रकार किसी न किसी पार्टी का झंडा उठाए, सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिकियाएं देते रहते है. जिसका असर सोशल मीडिया पर उनको फॉलों कर रहे लोगों पर पड़ता है. जहां उनके कुछ समर्थक भी बन जाते है और कुछ विरोधी भी हो जाते है. साथ ही उनके लिए भविष्य में राजनिति का विकल्प भी खुला रहता है. खैर इन सभी के लिए जनता भी कम दोषी नही है. लोगों को कुछ चीज़े समझनी भी चाहिए और फालतू की बातों का बहिष्कार करना चाहिए. कुछ चैनल ऐसे भी है जहां अच्छे मुद्दों पर बहस होती है. लेकिन उनको देखने वाले चंद लोग ही होते है, जो या तो सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे होते है या कुछ भूले बिसरे लोग जिनको चिल्ल्म चिल्ली पसंद नही होती है. हमारा इस लेख को लिखने का उद्देश्य यही था कि लोगों के सामने कुछ तथ्य रखे जाए, जिससे वह कुछ नए नजरिए से शांत होकर सोच सके कि उनको राजनिति में जाना है या समाज में जुड़े रहकर प्यार प्रेम से अपना घर चलाना हैं.