न्यायपालिका, कार्यपालिका के बीच खिंचाव ठीक नहीं
भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने 15 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय परिसर में तिरंगा फहराने के बाद कहा, न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका के बीच एक दूसरे के लिए आपसी सम्मान होना चाहिए और इन सभी पर ‘बाहरी दबाव’ नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि, हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया है कि, राज्य के सभी अंग दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण किए बगैर अपने अपने क्षेत्रों में काम करें। न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने ये तमाम बातें तात्कालिक हालात के मद्देनजर कही थी। उनके वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि, न्यायपालिका और कार्यपालिका में स्वयं को सर्वोच्च बताने व दिखाने की मंशा छिपी है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर द्वारा कहा गया था कि, कार्यपालिका जब अपने दायित्व निर्वहन में विफल रहती है, तब ही न्यायपालिका उसके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। दरअसल उसके पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली (जो कि पेशे से वकील हैं) ने न्यायपालिका के बढ़ते हस्तक्षेप पर आपत्ति व्यक्त करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से उसे अपनी मर्यादाओं में रहने की नसीहत दी थी जिसके जवाब में उसी शैली में प्रधान न्यायाधीश ने भी कह दिया कि कार्यपालिका के विफल होने पर ही मजबूरन न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा लांघकर उसके क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करना पड़ता है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू ने न्यायपालिका और विधायिका में सहोदर संबंध होने का जिक्र करते हुए इन दोनों के बीच समन्वय और इनमें से किसी के संविधान सम्मत मार्ग से भटकने की स्थिति में एक दूसरे को सही राह दिखाने पर जोर दिया था।
प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर के हालिया बयान को लेकर देश में चर्चा का माहौल है। कानून और न्याय के क्षेत्र से जुड़ी दिग्गज हस्तियों तक ने इसके पक्ष−विपक्ष में अपनी राय रखी। चूंकि प्रधान न्यायाधीश के सार्वजनिक विचारों की सीधी आलोचना को अच्छा नहीं माना जाता,विशेष रूप से सरकार से जुड़े किसी भी शख्स द्वारा इसलिए उनकी बात का जवाब देने का जिम्मा एक बार फिर वकील साहब जेटली ने ही संभाला। गत दिवस एक समारोह में बोलते हुए वित्तमंत्री ने श्री ठाकुर की टिप्पणी के परिप्रेक्ष्य में कहा कि कार्यपालिका यदि अपने कर्त्तव्य के निर्वहन में विफल रहे तो न्यायपालिका उसे तत्संबंधी निर्देश तो दे सकती है, किन्तु वह उसके काम को हाथ में नहीं ले सकती। माना जा सकता है कि श्री जेटली की पूर्व में की गई टिप्पणी उत्तराखंड सहित कुछ अन्य प्रकरणों के संदर्भ में की गई थी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हुए विधायिका तक के अधिकार क्षेत्र में दखल दिया था।
बीती 4 मई राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्य राजीव शुक्ला ने कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप का मुद्दा उठाते हुए एक आयोग गठित करने की मांग की गयी थी ताकि इनके अधिकार क्षेत्रों की व्यापक व्याख्या की जा सके। राजीव शुक्ला ने शून्यकाल में यह मुद्दा उठाते हुए कहा की, ‘अक्सर कार्यपालिका में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की शिकायत मिली है या फिर कहा जाता है कि कार्यपालिका न्यायपालिका के साथ सहयोग नहीं कर रही है। माहौल असहयोग का बन जाता है। स्थिति यह है कि भारत के प्रधान न्यायाधीश कथित तौर पर रो पड़े।
हाल में अनेक मामले ऐसे हुए जिनमें ये अनुभव हुआ कि न्यायपालिका अपनी सीमाएं पार कर शासन तंत्र के अन्य क्षेत्रों में टांग अड़ाने की कोशिश कर रही है। प्रधान न्यायाधीश ने एक तरह से इस आरोप पर स्पष्टीकरण दिया था कि, जब कार्यपालिका अर्थात सरकार अपना काम नहीं कर पाती तब ही न्यायपालिका बीच में आती है। निश्चित रूप से श्री ठाकुर की वह टिप्पणी सरकारी खेमे से हुई आलोचना के स्वरों का शालीन जवाब था,किन्तु ज्यादा समय न गंवाते हुए श्री जेटली ने जवाबी पैंतरा ये कहते हुए छोड़ दिया कि, यदि सरकार काम नहीं कर रही तो न्यायपालिका उसे उसके लिए निर्देशित भले कर दे परन्तु ये पूरी तरह से अवांछनीय होगा कि वह एक कदम आगे बढ़कर खुद ही सरकार बनकर काम करने लग जाए। एक विधिवेत्ता की तरह उन्होंने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का पूरा−पूरा अधिकार है. वहीं उन्होंने ये भी कहा कि उसकी स्वतंत्रता बेहद जरूरी है, जिसे हर सूरत में सुरक्षित रखना होगा किन्तु इसी के साथ उन्होंने बिना संकोच किए कहा कि, कार्यपालिका की स्वतंत्रता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है अतः दोनों को एक दूसरे के क्षेत्र में टांग अड़ाने से बचना चाहिए।
1972 में केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। अदालत ने टकराव की स्थिति को खत्म करने के लिए संविधान के मौलिक ढांचे का सिद्धांत भी पारित किया। इसमें कहा गया कि संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती है जो संविधान के मौलिक ढांचे को प्रतिकूल प्रभावित करता हो। साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के तहत न्यायपालिका संसद द्वारा किए गए संशोधन से संविधान का मूल ढांचा प्रभावित होने की जांच करने के लिए स्वतंत्र है। भारतीय शासन व्यवस्था में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत लागू है। इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र की लक्ष्मण रेखा साफ साफ खींच दी गई है। इसके अनुसार कानून बनाना विधायिका का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जांच करना न्यायपालिका का काम है।
कार्यपालिका के विफल रहने पर न्यायपालिका के हस्तक्षेप को उचित ठहराने प्रधानमंत्री के तर्क के उत्तर में अरूण जेटली ने पलटवार करते हुए कहा कि अदालतों में लंबित मुकदमों का ढेर लगा होने के नाम पर जिस तरह कार्यपालिका उसका काम हाथ में नहीं ले सकती उसी तरह का आत्म नियंत्रण न्यायपालिका से भी अपेक्षित है। सरकार और न्यायपालिका के बीच समय−समय पर बैठकें होती रहती हैं, जिनमें प्रशासनिक व्यवस्थाओं के अलावा एक दूसरे की अपेक्षाओं और समस्याओं पर विचारों का आदान−प्रदान होता है। यदि केन्द्र सरकार ऐसी ही किसी बैठक में न्यायालयीन हस्तक्षेप पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाती या फिर प्रधान न्यायाधीश भी बजाय सार्वजनिक टिप्पणी के पत्र लिखकर या निजी तौर पर कतिपय मंत्रियों के बयानों पर अपना पक्ष रख देते तब बात दबी−छिपी रहती, परन्तु इसके ठीक उलट दोनों पक्ष खुलकर मैदान में उतर पड़े हैं तो जाहिर है मुकाबला देखने वाले भी जमा होंगे। दोनों तरफ से जो मुद्दे उठाए गए वे हवा में उड़ाए जाने लायक नहीं हैं।
प्रधान न्यायाधीश ने कार्यपालिका की विफलता पर हस्तक्षेप को जहां जायज ठहराया वहीं वित्तमंत्री का तर्क भी अपनी कसौटी पर सही है। उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं समीक्षा के अधिकार की रक्षा को जहां जरूरी बताया वहीं पहली बार कार्यपालिका की स्वतंत्रता का मुद्दा भी छोड़ दिया जो इस बहस को नई दिशा दे सकता है। उनका ये कहना मायने रखता है कि जिस तरह न्यायपालिका के अपने कर्त्तव्य के निर्वहन में विफल रहने पर कार्यपालिका उसका काम हाथ में लेने का अधिकार नहीं रखती ठीक वैसे ही न्यायपालिका को भले ही निर्देशित करने का अधिकार हो किन्तु महज इस आधार पर replica watches वह कार्यपालिका के काम नहीं कर सकती कि वह उसे करने में असफल है। यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब दोनों पक्षों के बीच अधिकार एवं कार्य क्षेत्र को लेकर इस तरह का टकराव हो रहा हो।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का दूसरे राज्यों में तबादला भी इंदिरा गांधी के शासनकाल में शुरू हुआ था। सरकार में कोई भी पार्टी या नेता क्यों न बैठा हो उसे ये कभी रास नहीं आता कि अदालतें उसके रोजमर्रे के काम में हस्तक्षेप करें। इंदिरा गांधी ने जब बैंक राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म करने जैसे निर्णय लिए थे तब उन्हें भी न्यायपालिका की तरफ से रुकावटों का सामना करना पड़ा। उसी वक्त प्रतिबद्ध न्यायपालिका का जुमला उछला जिसे उस समय सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थ कतिपय न्यायाधीशों तक ने समर्थन दिया था। जनहित याचिकाओं की सुनवाई करने का निर्णय भी अप्रत्यक्ष रूप से कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप ही कहा गया जिनके replica rolex माध्यम से न्यायपालिका आए दिन शासन−प्रशासन को दिशा−निर्देश दिया करती है। इस बारे में यहां तक कहा जाने लगा है कि,आजकल न्यायपालिका ही देश चला रही है। अपने काम में हस्तक्षेप किसी को पसंद नहीं आता। इस संदर्भ में श्री जेटली का ये कहना सही है कि जिस तरह सरकार न्यायपालिका की भूमिका में नहीं आ सकती ठीक उसी मर्यादा का न्यायपालिका को भी कार्यपालिका के संदर्भ में पालन करना चाहिए। इस बहस में एक बात अच्छी है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों अपना पक्ष रखने में कोई संकोच नहीं कर रहे। संवाद की यही प्रक्रिया लोकतांत्रिक समाज की पहचान है लेकिन इसमें दोनों पक्षों को कटुता एवं श्रेष्ठता के भाव से मुक्त रहना चाहिए।
कार्यपालिका को ये गुमान छोड़ना पड़ेगा कि वह सर्वशक्तिमान है,वहीं न्यायपालिका को भी ये स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अम्पायर या रैफरी तो हो सकती है परन्तु मैदान में मौजूद रहने के बाद भी वह खिलाड़ी की भूमिका अख्तियार नहीं कर सकती। प्रजातंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का महत्व एक जैसा है परन्तु आदर्श स्थिति वही होती है जिसमें सभी अपनी−अपनी मर्यादा का बिना राग−द्वेष से पालन करें। लोकतंत्र में न्यायालय के फैसलों के खिलाफ बावेला मचाना स्वस्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। अक्सर मशहूर हस्तियों या उनसे जुड़े लोगों के मामलों में न्यायपालिका पर उँगलियाँ उठाई जाती हैं। अगर न्यायपालिका−कार्यपालिका में संबंध प्रगाढ़ होंगे तो इसका लाभ सबको नहीं मिलेगा, बल्कि न्याय के लिए विश्वास का संकट खड़ा हो जाएगा। बेहतर यही है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका में टकराव की स्थिति बनने ही न दी जाए। इसी से लोकतांत्रिक व्यवस्था सुदृढ़ होगी।